क्योंकि ड्यूटीरियम एवं ट्राइटियम हाइड्रोजन के ही समस्थानिक हैं, इनमें से प्रत्येक के नाभिक में एक प्रोटॉन होना चाहिए। लेकिन हाइड्रोजन, ड्यूटीरियम एवं ट्राइटियम के नाभिकों के द्रव्यमानों में अनुपात है।

इसलिए ड्यूटीरियम एवं ट्राइटियम के नाभिकों में प्रोटॉन के अतिरिक्त कुछ उदासीन द्रव्य भी होना चाहिए। इन समस्थानिकों के नाभिकों में विद्यमान उदासीन अनाविष्ट द्रव्य की मात्रा को प्रोटॉन-द्रव्यमान के मात्रकों में व्यक्त करें तो क्रमशः एक एवं दो मात्रकों के लगभग होता है। यह तथ्य इंगित करता है कि परमाणुओं के नाभिकों में प्रोटॉनों के अतिरिक्त विद्यमान रहने वाला यह उदासीन द्रव्य भी एक मूल मात्रक के गुणजों के रूप में ही होता है। इस परिकल्पना की पुष्टि, 1932 में, जेम्स चैडविक द्वारा की गई जिन्होंने देखा कि जब बेरिलियम नाभिकों पर ऐल्फ़ा कणों (ऐल्फ़ा कण, हीलियम नाभिक होते हैं जिनके विषय में हम अगले अनुभाग में चर्चा करेंगे) की बौछार की जाती है, तो इनसे कुछ उदासीन विकरण उत्सर्जित होते हैं। यह भी पाया गया कि ये उदासीन विकिरण, हीलियम, कार्बन एवं नाइट्रोजन जैसे हलके नाभिकों से टकराकर उनसे प्रोटॉन बाहर निकालते हैं। उस समय तक ज्ञात एक मात्र उदासीन विकिरण फोटॉन (विद्युत चुंबकीय विकिरण) ही थे। ऊर्जा एवं संवेग संरक्षण के नियमों का प्रयोग करने पर पता चला कि यदि ये उदासीन विकिरण फोटॉनों के बने होते तो इनकी ऊर्जा उन विकिरणों की तुलना में बहुत अधिक होती जो बेरिलियम नाभिकों पर ऐल्फ़ा कणों की बौछार से प्राप्त होते हैं। इस समस्या के समाधान का सूत्र, जिसे चैड़िक ने संतोषजनक ढंग से हल किया, इस कल्पना में समाहित था कि उदासीन विकिरणों में एक नए प्रकार के उदासीन कण होते हैं जिन्हें न्यूट्रॉन कहते हैं। ऊर्जा एवं संवेग संरक्षण नियमों का उपयोग कर, उन्होंने इस नए कण का द्रव्यमान ज्ञात करने में सफलता प्राप्त की, जिसे प्रोटॉन के द्रव्यमान के लगभग बराबर पाया गया।