प्रकाश की तरंग प्रकृति उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक अच्छी तरह स्थापित हो गई थी। प्रकाश के तरंग-चित्र के द्वारा व्यतिकरण, विवर्तन तथा ध्रुवण की घटनाओं की स्वाभाविक एवं संतोषजनक रूप में व्याख्या की जा चुकी थी। इसके अनुसार, प्रकाश एक वैद्युतचुंबकीय तरंग है, जो विद्युत एवं चुंबकीय क्षेत्र से मिलकर बनी होती है तथा जिस आकाशीय क्षेत्र में फैली होती है, वहाँ ऊर्जा का संतत वितरण होता है। अब हम यह देखेंगे कि क्या प्रकाश का यह तरंग-चित्रण पिछले अनुभाग में दिए गए प्रकाश-विद्युत उत्सर्जन संबंधी प्रेक्षणों की व्याख्या कर सकता है।

प्रकाश-विद्युत उत्सर्जन के तरंग-चित्रण के अनुसार धातु के पृष्ठ (जहाँ विकिरण की किरण-पुंज पड़ती है) पर स्वतंत्र इलेक्ट्रॉन विकिरित ऊर्जा को संतत रूप में-अवशोषित करते हैं। जितनी अधिक प्रकाश़ की तीव्रता होगी उतने ही अधिक वैद्युत तथा चुंबकीय क्षेत्रों के आयाम होंगे। परिणामस्वरूप, तीव्रता जितनी अधिक होगी उतना ही अधिक प्रत्येक इलेक्ट्रॉन के द्वारा ऊर्जा-अवशोषण होना चाहिए। इस चित्रण के अनुसार, प्रकाशिक इलेक्ट्रॉन की उच्चतम गतिज ऊर्जा तीव्रता में वृद्धि के साथ बढ़नी चाहिए। साथ ही, चाहे प्रकाश की आवृत्ति कुछ भी हो, एक पर्याप्त तीव्र विकिरण किरण-पुंज (पर्याप्त समय में) इलेक्ट्रॉनों को इतनी पर्याप्त ऊर्जा देने में समर्थ होगा जो इनके धातु-पृष्ठ से बाहर निकलने के लिए आवश्यक निम्नतम ऊर्जा से अधिक होगी। इसलिए, एक देहली आवृत्ति का अस्तित्व नहीं होना चाहिए।